लेखनी अपना कर्म ओर धर्म उसे क्यों छोड़े,कुछ तो लोग कहेंगे,लोगों का काम है कहना
बात मन की- निलेश कांठेड़, स्वतंत्र पत्रकार एवं विश्लेषक भीलवाड़ा
आज बात किसी प्रसंग विशेष की नहीं अपने अनुभवों की ओर जो लिखते रहते उस पर लोगों की जो प्रतिक्रियाएं मिलती उस पर करेंगे। जीवन में पत्रकारिता को आजीविका का माध्यम बनाया तो देश व समाज के हित में लिखना हमारा कर्म ओर धर्म दोनों है। हॉलाकि कोई कहता कितना भी लिख लो कुछ नहीं होने वाला, कोई कहता इस लिखे हुए को पढ़ता कौन खूब लोग लिखते रहते है क्या फर्क पड़ता है। कोई कहता है आपने समाज को सुधारने का “ठेका” लिया है क्या जो बार-बार लिखते रहते हो। ऐसे रिएक्शन सुनकर ओर पढ़कर कई बार मन में विचार भी आते है कि जो इस तरह का कह रहे वह शायद गलत तो नहीं है,हो सकता लिखने का कोई खास फर्क नहीं पड़ रहा हो फिर क्यों बार-बार ऐसे मुद्दे उठाए जो कुछ लोगों को नहीं सुहाएं ओर उनके दिलों को चुभ जाए। ऐसी सोच आने पर दिल में कलम को “विश्राम” देने का विचार बनता है लेकिन दूसरे ही पल दिमाग कह उठता है क्या कर रहे हो कुछ नेगेटिव सोच वाले लोगों के रिएक्शन से घबरा कर अपना कर्म ओर धर्म छोड़ देंगे क्या? ये दुनिया वाले है कुछ तो लोग कहेंगे, ओर लोग क्या कहेंगे यहीं सोचते रहेंगे तो जिंदगी का जो लक्ष्य बनाया वह कैसे हासिल कर पाएंगे। फिर विचार आता है कि कुछ तो लोग कहेंगे लोगों का काम है कहना। लोग क्या कहेंगे यहीं सोचते रहे जाएंगे तो अपने कर्म धर्म के साथ न्याय नहीं कर पाएंगे। ये भी सोचते है कि नकारात्मक सोच रखने वालों की प्रतिक्रिया से घबरा कर कदम पीछे खींच लेना तो उनका हौंसला बढ़ाने के समान है। नकारात्मकता का मुकाबला पॉजिटिव सोच से ही हो सकता।
परमात्मा भगवान महावीर जब संयम लेकर धर्म के पथ पर आगे बढ़े तो उन्हें भी नकारात्मक बाते सुनाने वाले ओर पीड़ा देने वाले कम नहीं थे लेकिन उन्होंने उनकी परवाह किए बिना अपने कर्म ओर कर्तव्य पथ पर आगे बढ़ना जारी रखा। दुनिया ने भगवान राम ओर भगवान कृष्ण जैसी अवतारी पुरूषों को भी नहीं छोड़ा तो हमारी क्या बिसात है जो आलोचनाओं ओर निंदा से बच सके। महापुरूषों की जीवन गाथाएं पढ़े तो यहीं सीख मिलती है कि जीवन में अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए कांटो भरी पथरीली राह से गुजरना ही पड़ता है। लोगों की प्रतिक्रिया से अधिक आत्मसंतुष्टि ही हमारी सफलता का पैमाना होना चाहिए। लोग क्या कहेंगे इस सोच का त्याग करते हुए हमे वो ही करना चाहिए जिसकी गवाही हमारा दिल ओर जमीर दे। सकारात्मक बातों को अंगीकार करते हुए जीवन में जरूरी बदलाव करे ओर नकारात्मक बातों की अनदेखी करते हुए अपने लक्ष्य से कभी विचलित नहीं हो।
अर्जुन जब तेल में परछाई देख मछली की आंख में तीर मारने जा रहा था या राम जब सीता स्वयंवर में शिव धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने जा रहे थे तब भी बोलने वाले कह रहे थे कि यह क्या कर पाएंगे जब बड़े-बड़े महारथियों के लिए ऐसा करना संभव नहीं हो रहा। यदि अर्जुन ओर राम भी ऐसे वचनों को सुन विचलित हो जाते तो शायद लक्ष्य हासिल नहीं कर पाते। इन सभी प्रसंगों से सीख यहीं मिलती है कि हम स्वयं के, परिवार, धर्म, समाज ओर राष्ट्र के हित में कोई काम करने की ठान लेते है तो किसी ओर पर नहीं सबसे पहले स्वयं पर भरोसा रखना होगा ओर ये मानना होगा कि मुझे इस कार्य के लिए भगवान ने निमित बनाया है ओर चाहे सारी दुनिया मेरा मनोबल गिराए पर मुझे खुद में ओर अपने परमात्मा में आस्था रखनी है। हमेशा याद रखे जब हम किसी काम में विफल होंगे तो विफलता में भागीदार बनने वाला कोई दुर्लभ ही होंगा लेकिन सफलता की सीढ़िया चढ़ेंगे तो सहभागी बनने के लिए होड़ होगी हर कोई उस सफलता से स्वयं को जोड़ना चाहेगा। हर सफलता की नींव विफलता से ही पड़ती है ओर विफलता कुछ पलों की निराशा अवश्य देती है पर भविष्य की सफलता का आधार भी वहीं बनती है इसलिए कभी विफलताओं से घबराए नहीं ओर अपने जीवन का जो लक्ष्य परमात्मा पर आस्था रखते हुए तय किया है उस पाने के लिए निर्भिकता से बढ़ते चले जाएं। यहीं गुनगानते चले कि जब परमात्मा ओर आत्मा का साथ है तो फिर डरने की क्या बात है।