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    ‘माउंटेन मैन’ के परिवार को राहुल गांधी का सहारा, पक्का घर बनाकर निभाया वादा

    कांग्रेस नेता और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी इन दिनों बिहार को लेकर खासे सक्रिय हैं. वह चुनावी साल में अब तक आधा दर्जन बार बिहार का दौरा कर चुके हैं. पिछले महीने पहले राहुल गांधी ने जब बिहार का दौरा किया था तब वह माउंटेन मैन के नाम से चर्चित दशरथ मांझी के घर गए थे, और उनके परिजनों से मुलाकात भी की थी. अब उनके लिए पक्का घर बनवा रहे हैं. उनकी नजर मांझी के जरिए बिहार में अनुसूचित जाति के लोगों के वोटों के साथ ही अपने प्रदर्शन में सुधार की है.

    दशरथ मांझी एक ऐसा नाम है जो बिहार में घर-घर जाना-पहचाना है. आगे चलकर इनके संघर्ष पर एक फिल्म भी बनाई गई. लोकप्रियता हासिल करने के बाद बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक बार दशरथ मांझी को सांकेतिक रूप से मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठाया भी था. हर किसी ने उनके संघर्ष की तारीफ भी की, लेकिन उनके परिवार की माली हालत पहले ही जैसी रही. पिछले महीने के शुरुआती हफ्ते में राहुल गांधी जब बिहार के दौरे पर गए थे.

    बनाया जा रहा 4 कमरे का पक्का घर

    तब राहुल गांधी गया शहर से करीब 40 किलोमीटर दूर गेहलौर गांव में दशरथ मांझी स्मारक पर गए. साथ ही गांव में मांझी के परिवार के लोगों से मुलाकात की और उनका हालचाल जाना था. तब दशरथ मांझी के बेटे भगीरथ ने राहुल गांधी से अनुरोध किया था, “उनके पास अभी तक पक्का मकान नहीं है. मैं राहुल गांधी से यह अनुरोध करना चाहूंगा, कि वे हमारे लिए एक पक्का मकान मुहैया कराएं.” इसके बाद कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष ने उनके लिए 4 कमरे वाला पक्का घर बनाने का जिम्मा उठाया और आज यह मकान आधा बनकर तैयार हो चुका है.

    हालांकि माउंटेन मैन दशरथ मांझी के बेटे भगीरथ भी सियासी मैदान में उतर चुके हैं. कुछ समय पहले तक वह मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) छोड़कर कांग्रेस में शामिल हो गए. राहुल की यात्रा के दौरान भगीरथ ने यह भी खुलासा किया कि वह बिहार में होने वाले अगले विधानसभा चुनाव में अपनी किस्मत आजमाना चाहते हैं और वह पार्टी से टिकट चाहते हैं.

    दलित वोटर्स पर राहुल की निगाहें

    भगीरथ भले ही राजनीति में आ गए हों, लेकिन उनके पिता दशरथ आज भी बिहार में सम्मानित चेहरे के रूप में विशिष्ट पहचान रखते हैं. उनका निधन साल 2007 में हो गया था. कांग्रेस दशरथ मांझी के जरिए बिहार में अपने कोर वोट को फिर से हासिल करने की जुगत में लगी है. यही वजह है कि राहुल दशरथ मांझी के घर गए. उनके परिजनों से मुलाकात भी की. साथ में नारियल पानी भी पिया. अब राहुल दशरथ के कच्चे घर को पक्का करा रहे हैं. दशरथ पिछले 20-30 सालों से लगातार चर्चा में रहे, बिहार की सियासत के कई बड़े चेहरे लगातार इनकी बात भी करते रहे, लेकिन उनका पक्का घर नहीं बनवाया गया.

    अब अगले कुछ महीने में बिहार में विधानसभा चुनाव होने हैं. कांग्रेस अपने पिछले प्रदर्शन को सुधारने में लगी है. कांग्रेस अपनी बदली रणनीति के तहत अनुसूचित जाति और जनजाति के वोटर्स तक पहुंच बनाने के लिए आक्रामक तरीके से प्रयास में जुटी है. कांग्रेस ने कुछ महीने पहले अपने बिहार प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश प्रसाद सिंह की जगह दलित नेता राजेश राम को नियुक्त कर इसकी शुरुआत की थी. यही वहीं कांग्रेस ने दलित समुदाय से आने वाले सुशील पासी को बिहार का सह-प्रभारी भी नियुक्त कर बड़ा दांव चला. मांझी मुसहर भुइयां जाति के हैं जो अनुसुचित जाति में शामिल है.

    मांझी से पहले भी कई और कोशिश

    यही नहीं कांग्रेस ने इस साल फरवरी में बिहार के विख्यात पासी नेता जगलाल चौधरी की 130वीं जयंती मनाई. पार्टी ने पहली बार जगलाल चौधरी की जयंती धूमधाम के साथ मनाई थी. इस कार्यक्रम में राहुल गांधी भी शामिल हुए थे.

    इस तरह से देखा जाए तो कांग्रेस बदली रणनीति के तहत बिहार में काम कर रही है. बिहार में अहम संगठनात्मक बदलाव, दलित समुदाय से संबंधित कार्यक्रमों का आयोजन और अब मांझी का पक्का घर यह दिखाता है कि कांग्रेस अपने पारंपरिक वोट बैंक, जो राज्य की आबादी का करीब 19 फीसदी है, को लुभाने की कोशिश में है.

    धीरे-धीरे दूर होता गया दलित

    एक वक्त था जब कांग्रेस को दलित वोटर्स का मजबूत साथ मिला करता था और उसे मजबूत वोट बैंक माना जाता था. 1990 के दशक के बाद यह वर्ग कांग्रेस से दूर होता चला गया. फिर साल 2005 के बाद यह वर्ग धीरे-धीरे कांग्रेस से छिटकते हुए नीतीश कुमार की जनता दल (यूनाइटेड) के साथ आ गया.

    243 सीटों वाले बिहार विधानसभा में से 38 सीटें अनुसूचित जातियों के लिए और 2 सीटें अनुसूचित जनजातियों के लिए रिजर्व हैं. बिहार में पिछले 3 दशकों में क्षेत्रीय दलों के उभरने और दलितों के दूर जाने की वजह से कांग्रेस का प्रदर्शन गिरता चला गया. 1990 में जहां कांग्रेस का वोट प्रतिशत 24.78 फीसदी था, वो 1995 में घटकर 16.30 फीसदी तक आ गया. गिरावट का सिलसिला जारी रहा और 2000 में 11.06 फीसदी हो गया. 2005 में नीतीश कुमार का दौर शुरू होने के समय कांग्रेस के खाते में महज 6.09 फीसदी वोट आए.

    20 साल से दहाई की तलाश में कांग्रेस

    साल 2005 में कांग्रेस का वोट प्रतिशत पहली बार दहाई से गिरकर इकाई में आया और फिर कभी यह दहाई को नहीं छू सका. कांग्रेस का 2005 में वोट शेयर 6.09 फीसदी रहा तो 2010 में यह थोड़ा बढ़कर 8.37 फीसदी हो गया. पहली बार राष्ट्रीय जनता दल की अगुवाई में महागठबंधन के बैनर तले कांग्रेस ने 2015 का चुनाव लड़ा लेकिन उसके प्रदर्शन में गिरावट ही आई और यह 6.7 फीसदी तक सिमट गया. इसके बाद 2020 में कांग्रेस ने महागठबंधन के साथ लगातार दूसरी बार चुनाव लड़ा तो इस बार उसे थोड़ा फायदा हुआ और दहाई के बेहद करीब पहुंच गई. तब कांग्रेस को 9.48 फीसदी वोट मिले थे.

    कांग्रेस को 2020 के विधानसभा चुनाव में 19 सीटों पर जीत हासिल हुई थी जिसमें 5 रिजर्व सीटों (4 अनुसूचित जाति और 1 अनुसूचित जनजाति) पर जीत मिली थी. हालांकि 2015 के चुनाव में कांग्रेस को 27 सीटों पर जीत हासिल हुई थी और इस तरह से उसे 8 सीटों का नुकसान हुआ था. इन सबको देखते हुए माना जा रहा है कि राहुल गांधी आगामी विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की संभावनाओं को फिर से बेहतर करने के लिए दलित समुदाय को लुभाने की हर संभव कोशिश कर रहे हैं.

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