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    इस्माइलपुर की लैदर की जूतियां अलवर को दिला रही देश— विदेश में पहचान

    इस्माइलपुर गांव के ज्यादातर घरों में किया जाता है जूतियां बनाने का कार्य

    अलवर। जिले का इस्माइलपुर गांव देश भर में अलवर को पहचान दिला रहा है। इस गांव की खास बात यहां बनने वाली लैर की जूतियां हैं। इस गांव के करीब चार सौ परिवार पिछले 200 साल से लैदर जूती निर्माण की हस्तकला को जिंदा रखे हुए हैं।

    खैरथल— तिजारा जिले में स्थित इस्माइलपुर गांव विशेष पारंपरिक जूतियों के लिए जाना जाता है। यह छोटा-सा गांव शिल्पकला के क्षेत्र में अपनी अलग पहचान बना चुका है। यहां तैयार जूतियां केवल पहनने की चीज नहीं, बल्कि ये यहां की संस्कृति, परंपरा और कारीगरी की जीवंत मिसाल है। चमड़े की बनी इन जूतियों में हाथ से की गई कढ़ाई, रंग-बिरंगे धागों का उपयोग और पारंपरिक डिज़ाइन इन्हें खास बनाती हैं।
    गांव का मुख्य व्यवसाय है जूती निर्माण
    इस्माइलपुर गांव के ज्यादातर घरों में जूतियां बनाने का कार्य किया जाता है। यहां की जूतियां देश ही नहीं विदेशों तक प्रसिदध हैं। गांव में जूतियां बनाने के काम की शुरुआत सैंकड़ों साल पहले हुई। अब जूती निर्माण इस्माइलपुर के लोगों का मुख्य व्यवसाय बन गया। गांव की महिलाए भी अब समूह बनाकर जूती बनाने का कार्य कर आय अर्जित कर रही हैं।
    हाथ से बनाते हैं डिजायन वाली जूतियां
    इस्माइलपुर गांव निवासी व जूती बनाने वाले कारीगर मुकेश का कहना है कि यहां ब्स्थानीय कारीगरों द्वारा हाथ से जूतियां बनाई जाती हैं। गांव के ज्यादातर परिवारों में पीढ़ियों से यह हुनर चला आ रहा है। परिवार के बुजुर्गों द्वारा इस गांव का इतिहास करीब एक हजार साल पुराना बताया जाता है। इस गांव की स्थापना इस्माइल खां खानजादा ने की और इसी कारण गांव का नाम इस्माइलपुर पड़ा। इस गांव में जूती बनाने की परंपरा सैंकड़ों साल पुरानी है। पूर्व राजशाही दरबारों के पारंपरिक पहनावे में  जूतियां खास होने से इनकी मांग बढ़ी।
    बाहर से आता है जूतियां बनाने का सामान
    कारीगर मुकेश ने बताया कि अभी जूतियां बनाने का चमड़ा गाजियाबाद, सोल गाजियाबाद व बानसूर, अपर का मैटेरियल आगरा व जयपुर से मंगाया जाता है। जूती बनाने के लिए चमड़ा, सोल व अपर मैटेरियल को काट छांट कर अलग किया जाता है। बाद में अलग— अलग कारीगर जूती बनाने का कार्य करते हैं। उन्होंने बताया कि जूती बनाने का कार्य अलग— अलग कारीगर छोटे— छोटे रूप में करते हैं। जूती बनाने का कार्य बारीक होता है, इसलिए इस कार्य को धीरे— धीरे करना होता है। कारीगर मुकेश ने बताया कि एक कारीगर को एक जोड़ी जूती तैयार करने में करीेब 6 घंटे का समय लग जाता है। आपस में बांटकर काम करने से एक दुकानदार एक सप्ताह में करीब 150 जोड़ी जूतियां तैयार कर सकता है।
    एक महीने बनाते हैं 45 हजार जोड़ी जूतियां 
    कारीगर मुकेश ने बताया कि इस्माइलपुर गांव में करीब 400 परिवार जूती बनाने के कार्य से जुड़े हैं। इसके चलते गांव में एक महीने में करीब 45 हजार जोड़ी जूतियां तैयार होती हैं। उन्होंने बताया कि यहां पंजाबी, जोधपुरी, पचेरी, जांलधरी सहित अन्य ​डिजायन की जूतियां तैयार की जाती हैं। उन्होंने बताया कि इस गांव के कारीगर इतने कुशल हैं कि एक बार देखने के बाद वे किसी भी डिजायन की जूती तैयार कर देते हैं।
    विदेशों में भी रहती है जूतियों की मांग
    मुकेश कुमार ने बताया कि इस्माइलपुर गांव की जूतियों की विशेषता देख देश ही नहीं विदेशी भी इन जूतियों की मांग करते हैं। उन्होंने बताया कि सोशल मीडिया द्वारा अमरीका से भी जूतियों की डिमांड आ चुकी है। इसके अलावा जनप्रतिनिधियों की पसंद भी इस्माइलपुर की जूतियां रही हैं।  इसके अलावा उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, आसाम, गोवा, मुम्बई, गुजरात, तमिलनाडु, पंजाब एवं राजस्थान के विभिन्न जिलों से जूतियों की मांग मिलती हैं, जिन्हें पार्सल से ये जूतियां भेजी जाती हैं। उन्होंने बताया कि विभिन्न स्थानों से कारीगर आकर यहां से थोक में जूतियां लेकर जाते हैं, जिनका आर्डर पहले देना होता है। कारीगर मुकेश ने बताया कि उन्हें एक जोड़ी जूती थोक में देने पर करीब 200 रुपए तक बचत हो जाती है।
    गांव की महिलाएं भी जूतियां बनाने में आगे 
    इस्माइलपुर निवासी मुकेश ने बताया कि गांव के अनेक परिवारों की महिलाएं जूती उद्योग से जुड़ी हैं। वे समूह के रूप में कार्य कर पुरुषों से बराबरी से भागीदारी निभाती हैं। महिलाएं ज्यादातर जूतियों पर नक्काशी, कढ़ाई और रंगाई का काम करती हैं। मेलों, हाटों और स्थानीय बाज़ारों के साथ सरकारी आयोजनों में स्टॉल लगाकर जूतियां बेचने का कार्य करती हैं।

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