✍️ निलेश कांठेड़ | स्वतंत्र पत्रकार व विश्लेषक, भीलवाड़ा
भरोसा… एक ऐसा अदृश्य धागा, जिसके सहारे रिश्तों की पूरी कश्ती पार हो

ती है। माता-पिता अपनी लाडली बेटी को एक अनजान के हवाले कर देते हैं — भरोसे पर। बेटे की जिंदगी का रिमोट किसी बहू के हाथ में थमा देते हैं — भरोसे पर। संतान को हजारों किलोमीटर दूर छात्रावास भेजते हैं — भरोसे पर। गंभीर रोगी को चिकित्सक के पास छोड़ते हैं — भरोसे पर। व्यापारी लाखों की जिम्मेदारी कर्मचारी को सौंप देता है — भरोसे पर।
एक पड़ोसी को घर की चाबी देना हो, ग्राहक को एडवांस पेमेंट करना हो या सरकार को टैक्स देना हो — सबकुछ एक अटूट विश्वास पर टिका होता है। यहां तक कि जब कोई परमात्मा से प्रार्थना करता है, वह भी भरोसे की अंतिम डोर पकड़े होता है।
लेकिन जब यही भरोसा टूटता है… तो सिर्फ रिश्ता नहीं टूटता — टूटता है अस्तित्व का ताना-बाना।
जब बहू दहेज की आग में झोंक दी जाती है, जब पति की हत्या का षड्यंत्र उसकी जीवनसंगिनी रचती है, जब छात्रावास में होनहार छात्र फांसी पर लटकता है, जब डॉक्टर की लापरवाही से जीवन बुझ जाता है, जब नेता-नौकरशाह घोटालों में लिप्त पाये जाते हैं, जब कर्मचारी गबन करता है या व्यापारी धोखा देता है — तो यह भरोसे की नृशंस हत्या होती है।
इंदौर में हुए राजा-सोनम रघुवंशी हत्याकांड ने भरोसे की जड़ें हिला दी हैं। पति की हत्या का आरोप पत्नी पर लगा है, जिसने प्रेमी संग मिलकर यह कुकृत्य किया। ऐसे मामलों के बाद युवा जीवनसाथी चुनने से घबराने लगते हैं। कोचिंग संस्थानों में आत्महत्या की घटनाएं अभिभावकों के भरोसे को झकझोर देती हैं। दोस्त ही जब धोखा दें, तो ‘दोस्ती’ जैसे पाक शब्द पर ही संदेह होने लगता है।
भरोसा जीतने में पूरी उम्र लग जाती है, लेकिन एक छल, एक धोखा… सबकुछ बर्बाद कर देता है।
कभी रिश्ते में असहमति हो, तो स्पष्ट बोलें — खरी-खोटी सुना लें। लेकिन पीठ में खंजर मत घोंपें। भरोसा टूटने से सिर्फ एक व्यक्ति नहीं, पूरा परिवार, समाज और देश टूटता है। और जब यह प्रक्रिया दोहराव में बदल जाए — तो शब्दकोश से भरोसा, आस्था, निष्ठा जैसे शब्द गायब हो जाते हैं। उनकी जगह ले लेते हैं — बेईमानी, मर्डर, स्कैम, फ्रॉड जैसे विषैले शब्द।
इसलिए यदि हम आने वाली पीढ़ी को एक सुंदर, सुरक्षित, मानवीय समाज देना चाहते हैं, तो सबसे पहले भरोसे की डोर को मजबूत करना होगा। याद रखें —
“भरोसा एक बार टूटता है, तो फिर सिर्फ रिश्ता नहीं, भरोसे की पूरी संस्कृति दम तोड़ देती है।”