भाजपा तो सीख गई राज करना, पर कांग्रेस कब सीखेगी विरोध करना

टिप्पणी – निलेश कांठेड़
राजस्थान की राजनीति इन दिनों कई सवालों के घेरे में है। कभी झालावाड़ जिले में सरकारी स्कूल की छत गिरने से बच्चों की मौत हो जाती है, तो कभी जयपुर के सबसे बड़े सरकारी चिकित्सालय में आग लगने से मरीजों की जान चली जाती है। वहीं, दिनदहाड़े गैंगस्टरों द्वारा हत्याएं कर सोशल मीडिया पर जिम्मेदारी लेना, कानून व्यवस्था को खुली चुनौती देने जैसा दृश्य बन गया है।
इन घटनाओं ने राज्य में भाजपा की भजनलाल सरकार की कार्यप्रणाली पर गंभीर सवाल खड़े किए हैं। सरकारी तंत्र की ढिलाई और प्रशासनिक लापरवाही आमजन के लिए जानलेवा साबित हो रही है।
सत्तापक्ष पर सवाल, पर विपक्ष मौन
ऐसे हालात किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में विपक्ष के लिए अवसर साबित हो सकते हैं — जनता की आवाज बुलंद करने और सरकार को जवाबदेह बनाने का मौका।
मगर राजस्थान में तस्वीर कुछ और है। भाजपा का एक तबका सरकार की कार्यशैली से असंतुष्ट होते हुए भी दिल्ली में बैठे शीर्ष नेतृत्व की नाराज़गी के डर से चुप्पी साधे हुए है। वहीं विपक्ष में बैठी कांग्रेस की भूमिका भी जनता की लड़ाई लड़ने के बजाय केवल कागजी बयानबाजी और सोशल मीडिया पोस्ट तक सीमित दिखाई देती है।
विरोध का मतलब केवल बयान नहीं
विधानसभा सत्र के दौरान हंगामा करना या वॉकआउट करना कांग्रेस के लिए जनता की आवाज उठाने का पर्याय बन गया है। लेकिन जमीन पर ठोस पहल करने, संघर्ष करने और जनहित के मुद्दों को आंदोलन में बदलने में कांग्रेस नाकाम नजर आती है। कुछ कांग्रेस नेता अवश्य अपने-अपने क्षेत्रों में व्यक्तिगत स्तर पर सक्रिय हैं, परंतु संगठन के रूप में पार्टी की भूमिका कमजोर पड़ी है। आज विरोध का अर्थ केवल प्रेस कॉन्फ्रेंस या ज्ञापन देने तक सीमित हो गया है।
आपसी खींचतान ने कमजोर किया विपक्ष
कांग्रेस के कमजोर प्रदर्शन का कारण भाजपा की मजबूती नहीं, बल्कि खुद कांग्रेस की आंतरिक खींचतान है।
कभी कहा जाता था — “भाजपा राज करना नहीं जानती और कांग्रेस विरोध करना नहीं जानती।”
आज स्थिति यह है कि भाजपा ने विरोधियों के हथकंडे सीखकर राज करना भी सीख लिया है, जबकि कांग्रेस अब तक प्रभावी विरोध करना नहीं सीख पाई है।
भाजपा पिछले एक दशक से सत्ता में रहते हुए राजनीति के हर दांव-पेच में दक्ष हो चुकी है। इसके उलट कांग्रेस सत्ता से बाहर रहते हुए भी सत्ताधारी मानसिकता से बाहर नहीं आ पाई है।
विपक्ष में भी सत्ता का अंदाज
राजस्थान में कांग्रेस नेताओं का तौर-तरीका अब भी सत्ताधारियों जैसा है। विपक्ष की भूमिका में भी उनमें संघर्ष की कमी और संगठनात्मक ढिलाई साफ झलकती है। यही कारण है कि कांग्रेस लगातार सत्ता के द्वार से दूर होती जा रही है।
जब तक विपक्ष जनता की आवाज बनकर सरकार को जवाबदेह नहीं बनाएगा, तब तक जनता भी उस पर भरोसा नहीं करेगी।
सत्ता वापसी की थाली में उम्मीद
ऐसा प्रतीत होता है कि कांग्रेस यह मानकर चल रही है कि राजस्थान में हर पांच वर्ष में सत्ता बदलने की परंपरा के चलते 2028 में मतदाता भाजपा से नाराज़ होकर सत्ता थाली में सजाकर कांग्रेस को सौंप देंगे — चाहे वह जनता के लिए कुछ करे या नहीं।
परंतु राजनीति में केवल परंपरा नहीं, प्रदर्शन और जनसंपर्क ही सफलता की कुंजी है।
भाजपा की तैयारी बनाम कांग्रेस की निष्क्रियता
भाजपा जहां अगले चुनाव की रणनीति पर तीन वर्ष पहले से काम शुरू कर चुकी है, वहीं कांग्रेस अब भी संगठनात्मक रूप से कमजोर और दिशाहीन दिखती है।
कांग्रेस का संगठनात्मक ढांचा इतना खोखला है कि पार्टी स्वयं अपनी ताकत बचाने में संघर्ष कर रही है, जबकि भाजपा केंद्र और राज्य दोनों स्तरों पर उसकी बची-खुची ताकत खत्म करने की रणनीति पर काम कर रही है।
निष्कर्ष: आत्ममंथन जरूरी
राजस्थान कांग्रेस में भीतरखाने चर्चा यही है कि पार्टी की कमजोरी भाजपा नहीं, बल्कि अपने ही नेता हैं — जो एक-दूसरे को नीचा दिखाने में अधिक व्यस्त हैं।
भाजपा में जहां संघ की रीति-नीति से व्यक्ति से बड़ा संगठन है, वहीं कांग्रेस में कार्यकर्ता पार्टी से अधिक नेता-निष्ठ हो गया है।
आज कांग्रेस सहित पूरा विपक्ष भाजपा की विफलताओं के सहारे जीत की आस लगाए बैठा है, जबकि सफलता उसी को मिलती है जो अपनी ताकत और मेहनत पर भरोसा रखे।
दूसरे की असफलता पर अपनी सफलता खोजने वाले दलों के हिस्से में हमेशा निराशा ही आती है।
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