युवाओं को भी चाहिए बेहतर धार्मिक शिक्षा
जयपुर। आज का युवा वर्ग जीवन के हर क्षेत्र में अपनी सक्रिय भागीदारी दर्ज करा रहा है। चाहे शिक्षा हो, तकनीक हो या सामाजिक नेतृत्व – युवा तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। ऐसे में जैन समाज के युवा भी पीछे नहीं हैं। वे समाज और धर्म के प्रति संवेदनशील हैं तथा अपनी भूमिका को समझना चाहते हैं। लेकिन उनकी एक प्रमुख शिकायत यह है कि उन्हें सही मार्गदर्शन और प्रेरणा नहीं मिलता व कभी कभी बुजूर्गो की डांट भी मिल जाती है।
युवाओं का कहना है कि यदि उन्हें केवल गलतियों के लिए टोका जाएगा तो उनमें धर्म के प्रति उत्साह कम होगा। धर्मशिक्षा और आचरण की प्रेरणा तभी सफल होगी जब उसे सकारात्मक ढंग से प्रस्तुत किया जाए। धर्म की गहरी बातें समझाने के लिए बुजुर्गों की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है। लेकिन यह जिम्मेदारी भी है कि वे युवाओं को कठोर शब्दों से नहीं, बल्कि सहज भाषा और प्रेरक उदाहरणों से जोड़ें।
जैन धर्म का मूल संदेश भी यही है – अहिंसा, करुणा और सम्यक दृष्टि। जब धर्म ही करुणा और प्रेम का उपदेश देता है, तो उसकी शिक्षा भी उसी भाव से दी जानी चाहिए। यदि युवाओं को यह महसूस होगा कि बुजुर्ग उन्हें परिवार की तरह अपनाकर समझा रहे हैं, तो वे धर्म के प्रति और भी अधिक समर्पित होंगे।
आज के समय में युवाओं का जीवन अनेक चुनौतियों से भरा हुआ है। आधुनिकता, प्रतियोगिता और करियर की दौड़ ने उन्हें व्यस्त बना दिया है। ऐसे माहौल में यदि बुजुर्ग और समाजजन धैर्य के साथ उन्हें धर्म की महत्ता समझाएँ, तो यह उनके जीवन की दिशा बदल सकता है। मार्गदर्शन और सकारात्मक प्रोत्साहन ही युवाओं को सही राह पर ले जाएगा।
युवाओं का यह भी मानना है कि धर्म की शिक्षा केवल उपदेशों तक सीमित न होकर व्यावहारिक जीवन से जुड़ी होनी चाहिए। उदाहरण के तौर पर – अहिंसा का पालन केवल पूजा तक न होकर जीवनशैली का हिस्सा बने, संयम केवल व्रत-उपवास तक सीमित न रहकर विचार और व्यवहार में उतरे। यदि बुजुर्ग इस प्रकार से धर्म को सरल भाषा में समझाएँ, तो युवा इसे अपने जीवन का अभिन्न अंग बना सकते हैं।
दरअसल, हर पीढ़ी के बीच एक पीढ़ीगत अंतर होता है। बुजुर्ग अपने अनुभव के आधार पर सोचते हैं, जबकि युवा अपने समय की परिस्थितियों को देखते हुए निर्णय लेना चाहते हैं। यह अंतर तभी पाटा जा सकता है जब संवाद हो, समझ और सहानुभूति का भाव हो। बुजुर्ग यदि युवाओं को केवल डांटेंगे तो यह दूरी और बढ़ेगी। लेकिन यदि वे उन्हें स्नेहपूर्वक मार्ग दिखाएँगे तो युवा स्वयं धर्म की ओर आकर्षित होंगे।
जैन समाज की यह विशेषता रही है कि उसने सदैव शिक्षा, संस्कार और समाज सेवा को महत्व दिया है। आज आवश्यकता है कि बुजुर्ग और युवा मिलकर इस परंपरा को और मजबूत करें। बुजुर्ग अपनी जीवन यात्रा का अनुभव बाँटें और युवा उसे नए युग की जरूरतों के अनुसार अपनाएँ। यही संगम समाज को आगे बढ़ाएगा।