चंडीगढ़। “इस संसार में हर वस्तु चलायमान है। हर घड़ी की तरह समय आगे बढ़ रहा है। जो आगे नहीं बढ़ रहा है, वह बहुत पीछे छूट जाएगा।” यह प्रेरणादायक विचार मनीषी संत मुनि विनयकुमार जी आलोक ने अणुव्रत भवन, सेक्टर-24 स्थित तुलसी सभागार में आयोजित रविवारीय सभा को संबोधित करते हुए व्यक्त किए।
संतश्री ने कहा कि विशालता क्या है, इसका उत्तर तभी मिल सकता है जब हम स्वयं को विशाल बनाएं। हमारी आत्म-कृपा की कमी ही हमें परमात्मा की कृपा से वंचित कर देती है। यदि कोई व्यक्ति हमें कुछ देना चाहे और हम अहंकारवश व्यवहार करें, तो वह व्यक्ति पीछे हट जाता है। यही स्थिति परमात्मा की कृपा के साथ भी होती है।
उन्होंने कहा कि आज शरीर तो विकास को प्राप्त हो चुका है, लेकिन मस्तिष्क और आत्मा अभी भी सीमित हैं। यदि मन और मस्तिष्क का ऐसा विकास हो जाए कि संपूर्ण ब्रह्मांड उसमें समा सके, तो मनुष्य वास्तव में आध्यात्मिक बन सकता है। इसके लिए मनुष्य में बालक जैसा भाव होना चाहिए, क्योंकि केवल बालक ही सही मायनों में विकसित हो सकता है।
मुनिश्री ने आगे कहा कि आध्यात्मिकता का अर्थ केवल धार्मिक स्थलों पर जाने या कर्मकांड करने से नहीं है। यह तो एक भीतरी यात्रा है — स्वयं को खोजने और अपने अंदर के आनंद स्रोत को पहचानने की प्रक्रिया।
यदि कोई व्यक्ति इस सृष्टि की विशालता के सामने स्वयं को नगण्य माने, सभी के प्रति प्रेम और करुणा से भरा हो, और हर क्षण के लिए परम सत्ता के प्रति कृतज्ञता रखे, तो वह आध्यात्मिक मार्ग पर है।
संतश्री ने स्पष्ट किया कि आध्यात्मिकता का अर्थ दिखावे या प्रवचन मात्र नहीं है, बल्कि यह अपने जीवन का रूपांतरण है। यह प्रक्रिया उन लोगों के लिए है जो जीवन को उसकी संपूर्णता में, हर आयाम में, पूरी जीवंतता के साथ जीना चाहते हैं।
सभा के अंत में मुनिश्री ने कहा कि आध्यात्मिक यात्रा एक निरंतर परिवर्तन की यात्रा है। इसमें हर क्षण को आनंद से जीते हुए भी उस पर अधिकार की भावना नहीं रखनी चाहिए। आध्यात्मिकता मनुष्य की मुक्ति और चरम क्षमताओं में खिलने का माध्यम है — यह किसी मत, पंथ या पहचान तक सीमित नहीं है।
सभा में बड़ी संख्या में अनुयायी, श्रद्धालु एवं जिज्ञासु श्रोता उपस्थित रहे।