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    Homeधर्म-समाजजैसी दृष्टि वैसी सृष्टि: मुनिआलोक

    जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि: मुनिआलोक

    चंडीगढ़, ।

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    Janmuni programe in #Chandigarh

    इंसानों से गलतियां हो जाना स्वाभाविक है। ये गलतियां कभी हमसे परिस्थितियां करवाती हैं तो कभी हम अज्ञानवश ऐसा कर देते हैं। हममें से हर कोई न जाने प्रतिदिन ऐसी कितनी ही गलतियां करते हैं, लेकिन ऐसी गलतियों पर हमें दूसरों या खुद को सजा देने का कोई हक नहीं है। यदि हमें अपनी संतुष्टि के लिए कुछ देना है तो क्षमा देनी चाहिए। क्षमा करने से हमें दोहरा लाभ मिलता है। एक तो हम सामने वाले को आत्मग्लानि के भाव से मुक्त करते हैं, जबकि अन्य लोगों के दिलों में जगह बनाकर हम अपने आसपास सहज वातावरण का निर्माण करते हैं। । ये शब्द मनीषीसंतमुनिश्रीविनयकुमारजीआलोक ने अणुव्रत भवन सैक्टर 24सी तुलसीसभागार मे कहे।

    मनीषीसंत ने आगे कहा किसी को उसकी भूल के लिए क्षमा करना और आत्मग्लानि से मुक्ति दिलाना बहुत बड़ा परोपकार है। क्षमा करने की प्रक्रिया में क्षमा करने वाला, क्षमा पाने वाले से कहीं अधिक सुख पाता है। अगर देखा जाए तो गलती छोटी हो या बड़ी, उसे फिर सुधारा नहीं जा सकता। उसके लिए क्षमा ही मांगी जा सकती है। अगर आप किसी की भूल को माफ करते हैं तो आप उस व्यक्ति की सहायता तो करते हैं, साथ ही स्वयं की सहायता भी करते हैं। क्षमा मांगने से हमारा अहंकार ढलता है, जबकि क्षमा करने से हमारे संस्कार पलते हैं। क्षमा शीलवान का शस्त्र और अहिंसक का अस्त्र है। कर सकते हैं। क्षमा करना दंड देने से काफी बड़ा है। दंड मनुष्य देता है, लेकिन क्षमा देवता से प्राप्त होती है। दंड में उल्लास है शांति नहीं, जबकि क्षमा में शांति है और आनंद भी। महात्मा बुद्ध कहते हैं कि मैंने पाया कि अद्भुत हैं वे लोग जो दूसरों की भूल पर क्रोध करते हैं। अद्भुत इसलिए कि भूल दूसरा करता है और दंड वे स्वयं को देते हैं। मैं आपको गाली दूं और क्रोधित आप होंगे। मनुष्य का स्वभाव दो प्रकार का होता है-संकुचित और उदार। संकुचित दृष्टि वाले बहुत थोड़ा देख पाते हैं, जबकि उदार दृष्टि वाले वस्तु या व्यक्ति का समग्रता से परीक्षण करते हैं। संकुचित दृष्टि वाले चीजों या घटनाओं को अपने अंदर पकडक़र बैठे रहते हैं, जबकि उदार दृष्टि वाला व्यक्ति चीजों को दिल से नहीं लगाता। स्वामी विवेकानंद जी ने कहा कि सभी प्रकार के प्रेम विस्तार को और सभी तरह के स्वार्थ मतभेदों को जन्म देते हैं। इस प्रकार प्रेम ही जीवन का एकमात्र नियम है। जो व्यक्ति ऐसी दृष्टि रखता है वही सुंदर जीवन जी सकता है।

    मनीषीश्रीसंत ने अंत मे फरमाया जो लोग प्रतिक्रियाएं करते है या प्रतिक्रियाओंं को जानना, करना चाहते है उन लोगो को यही अभीप्सित होता है कि जो लोग प्रतिक्रियाओं के भंवर में फंस गए है उनकी जिंदगी की रफ्तार को थाम ली जाए और उन्हे ऐसा नाकारा जाए कि वे जिंदगी भर क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं के बीच पेण्डुलम की तरह बने रहे। जीवन मे तरक् की पाना चाहते हो तो न प्रतिक्रिया करे, न अपने  किसी क्रिया के बारे में औरों की प्रतिक्रिया जानने का कभी प्रयास करे। अपने स्व कर्म में निरंतर रमे रहते हुए हम जो भी प्राप्त करने  चाहे उसे आसानी से पा सकते हैं।

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