डॉ. असीम दास : डीन, ईएसआईसी मेडिकल कॉलेज, अलवर , राजस्थान
प्रदीप पंचोली, अलवर ।
“मैं भारतीय हूं” – एक परिचय
डॉ. असीम दास – ईएसआईसी मेडिकल कॉलेज, के डीन से जब अपनी पहचान के बारे में बात करते हैं तो वे कहते है – “मैं भारतीय हूं।” उनके शब्दों में एक ऐसा आत्मगौरव है जो सीमाओं से परे है। उनका जन्म गुजरात में हुआ, पर पिता की रेलवे सेवा के चलते वे देश के कई हिस्सों में रहे। उनका पारिवारिक मूल पूर्वी बंगाल से है और इस विविध सांस्कृतिक अनुभव ने उनके व्यक्तित्व को समृद्ध बनाया।
दसवीं में पढ़ते हुए सोचा था , स्टार्टअप खोलेंगे
डॉ. दास के बचपन की शुरुआत गुजरात के दाहोद में हुई। सातवीं-आठवीं कक्षा में पढ़ाई के लिए वे पिता के साथ अजमेर आ गए। वहीं से उन्होंने 1978-79 में दसवीं और 1981 में बारहवीं की परीक्षा पास की। दिलचस्प बात यह है कि वे उस समय स्टार्टअप के बारे में सोचते थे जब दुनिया उस बारे में कुछ खास नहीं जानती थी। वे स्पष्ट कहते हैं – “डॉक्टर को कभी-कभी अपने आदर्शों और संवेदनाओं से समझौता करना पड़ता है। डॉक्टर को सेवा करनी होती है, पर कभी-कभी ‘पगड़ी’ भी उतारनी पड़ती है।” इसी सोच के कारण उनका डॉक्टर बनने का बिल्कुल भी मन नहीं था।
माता– पिता की इच्छा पर बने डॉक्टर
माता– पिता चाहते थे परिवार में एक बेटा डॉक्टर बने, इनके मन में नहीं थी फिर भी उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए उन्होंने विज्ञान विषय तो ले लिया, लेकिन गणित को मुख्य विषय रखा और बायोलॉजी को ऐच्छिक। मन में द्वंद्व था। वे कहते है कि वे बारहवीं कक्षा की अर्धवार्षिक परीक्षा में बायोलॉजी में एक बार फेल हो गए । फिर भी माता पिता चाहते थे कि डॉक्टर ही बनना है इस कारण इंप्रूवमेंट टेस्ट देकर बायोलॉजी में सफलता पाई और आखिरकार मेडिकल की ओर बढ़ चले।
“बच्चों को जीना सिखाइए, दबाव मत डालिए
अपने साथ हुई एक घटना वे आज के माता पिता और शिक्षकों से साझा करना चाहते है। वे बोले मेरी बहन मुझसे अधिक इंटेलीजेंट थी। एक शिक्षक ने मुझसे कहा तुम उनके भाई हो। मैंने हां की तो बोले, तुम ऐसे क्यों हो। इस पर उनका जवाब था – “बहन अपनी जगह है और मैं अपनी। हमारी भिन्नताएं बनी रहें तो ही अच्छा है।”
वे कहते है – “बच्चों को जीना सिखाइए, दबाव मत डालिए। तुलना नहीं, सहयोग की जरूरत होती है।”
डाॅक्टर बने और विदेश में भी पहुंचे
1981 में उन्होंने पहले ही प्रयास में पीएमटी परीक्षा पास की और अजमेर मेडिकल कॉलेज में दाखिला लिया। 1988 में एमबीबीएस पूरा कर गुजरात के मेडिकल कॉलेज में फिजियोलॉजी के ट्यूटर पद पर नियुक्त हुए। साथ ही एम.डी. (फिजियोलॉजी) में प्रवेश लिया और 1991 में उपाधि प्राप्त की। इसके बाद एमपी शाह मेडिकल कॉलेज, जामनगर में उनकी स्थायी नियुक्ति हुई। 2005 में वे प्रोफेसर बने और बड़ौदा, राजकोट, जामनगर सहित नेपाल के बी.पी. कोइराला मेडिकल कॉलेज में 2007 से 2011 तक शिक्षण कार्य किया। उन्होंने मेडिकल यूनिवर्सिटी ऑफ अमेरिका में भी एक वर्ष सेवाएं दीं। त्रिपुरा मेडिकल कॉलेज और बीआर अंबेडकर मेडिकल कॉलेज में प्रिंसिपल के पद पर कार्यरत रहे।
मैं भूल गया तीसरा मुख्यमंत्री कौन था
2012 में ईएसआईसी के डीन पद हेतु चयन साक्षात्कार में उनसे चिकित्सक रहे तीन मुख्यमंत्रियों के नाम पूछे गए। वे दो का ही नाम बता सके – डॉ. फारूक अब्दुल्ला और डॉ. जीव राज मेहता। तीसरे बिधानचंद राय का नाम भूल गए। जबकि वे बीसी राय रिसर्च ग्रांट के भागीदार थे। वे आज भी इस स्मृति को मुस्कराकर साझा करते हैं।
पहले नब्ज देखकर होता था इलाज, अब मशीन करती है
डॉ. दास डॉक्टर बी.सी. रॉय के बारे में कहते हैं – “वो नब्ज देखकर इलाज कर लेते थे, अब सब कुछ मशीनों और रिपोर्ट्स पर निर्भर हो गया है। वे इसे गंभीर चिंता का विषय मानते हैं। वे यह भी कहते हैं कि मेडिकल शिक्षा में सोचने और निर्णय लेने की क्षमता कम होती जा रही है, जो कि चिकित्सा की आत्मा है। डॉक्टरों के लिए ह्यूमैनिटी और पेशेंस जैसे गुणों का होना सबसे जरूरी है। वे मानते हैं कि डॉक्टर का दायित्व केवल इलाज करना नहीं, बल्कि मरीज और परिजन के मन को भी उपचार देना है। “एक डॉक्टर तभी डॉक्टर कहलाने योग्य है, जब वह मानवीय संवेदना से जुड़ा हो।”
परिवार – प्रेरणा और सहारा
उनकी पत्नी इला दास एक टेक्नोक्रेट हैं। दिल्ली कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग से एम.टेक करने के बाद इंजीनियर्स इंडिया लिमिटेड से स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति ली। अब वे परिवार, अपने शौक और स्वयं पर ध्यान देती हैं – वॉइस ओवर, डांसिंग, एक्टिंग और केयरिंग के क्षेत्र में। डॉ. दास उन्हें “हर मोड़ पर संबल और प्रेरणा देने वाली” बताते हैं। बड़े बेटे डॉ. नीलाक्ष दास जॉर्जिया टेक यूनिवर्सिटी, अटलांटा से बीटेक और एमएस कर अमेजन, सिएटल (यूएसए) में साइंटिस्ट हैं। छोटे बेटे निलॉय दास बीटेक और एमबीए के बाद एचडीएफसी में बैंकिंग सेक्टर के आईटी में कार्यरत हैं।
युवाओं को संदेश
डॉ. दास का मानना है कि चिकित्सा के क्षेत्र में चार मूल्य आवश्यक हैं: “ह्यूमैनिटी, पेशेंस, इंटेलिजेंस और डिटरमिनेशन।” वे डॉक्टरों से कहते हैं –
“अगर आप मौतों के बीच काम करते हैं तो केवल मुर्दे दिखेंगे, लेकिन एक मुर्दा भी जिंदा कर सको तो समझो आपने जीवन को सार्थक किया है।”
प्रशासनिक कुशलता और निर्णय क्षमता
ईएसआईसी अलवर के डीन के रूप में उनकी प्रशासनिक कुशलता विशेष रूप से उल्लेखनीय है। चाहे मेडिकल स्टाफ का समन्वय हो या विद्यार्थियों की अकादमिक चुनौतियाँ – वे हर पहलू में संतुलन बनाकर चलते हैं। उनकी सोच स्पष्ट है – “सिस्टम बदलने के लिए पहले सिस्टम को समझना पड़ता है।”
अस्पताल में आपातकालीन सेवाओं की मॉनिटरिंग, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, इंटर्नशिप में अनुशासन और विद्यार्थियों के भविष्य की रूपरेखा – ये सब उनके नेतृत्व में संगठित और व्यवस्थित हुए हैं।