अलवर. पूर्व राजा— महाराजाओं के समय में अलवर में बाघ, बघेरों व अन्य वन्यजीवों के शिकार की अनुमति थी, लेकिन बाघिन का शिकार करने पर पाबंदी थी। लेकिन वर्ष 1972 में वन्यजीव अधिनियम लागू होने के बाद ही सरिस्का टाइगर रिजर्व में बाघ, बघेरों सहित अन्य वन्यजीवों के शिकार पर रोक लगी।
अलवर के इतिहास के जानकार एडवोकेट हरिशंकर गोयल ने बताया कि पूर्व राजा महाराजाओं के दौर में अलवर में वन्यजीवों के शिकार के लिए लाइसेंस देने की प्रथा थी, इसमें बाघ, बघेरे, जंगली सुअर, नील गाय सहित अन्य वन्यजीव शामिल थे। इन वन्यजीवों के शिकार के लिए यहां आने वाले विदेशी मेहमानों व बड़े शिकारी को पूर्व राजा की ओर से लाइसेंस दिया जाता था। हालांकि शिकार का यह लाइसेंस कुछ शर्तों के साथ दिया जाता था। इनमें प्रमुख शर्त मादा टाइगर के अनुमति नहीं देना थी। इसके अलावा शिकार की अनुमति महीने के दूसरे पखवाड़े में ही दी जाती थी। वन्यजीवों के शिकार के लिए लाइसेंस की रेट अलग-अलग समय पर बदली जाती रही। उन्होंने बताया कि कई बार पूर्व राजा महाराजाओं की ओर से विदेशी मेहमानों को खुश करने के लिए जंगल में बनी पानी की खेल में अफीम मिलाया जाता था। इससे बाघ एवं अन्य वन्यजीव खेल में अफीम मिला पानी पीकर मदमस्त होकर चलता, जिससे विदेशी मेहमान मचान से बंदूक से बाघ और अन्य वन्यजीवों का आसानी से शिकार कर पाते थे। रियासतकाल के दौरान अलवर के पूर्व शासक जयसिंह ने 11 फीट लंबे बाघ का शिकार किया, जिसकी खाल को संरक्षित कर अलवर म्यूजियम में साक्ष्य के तौर पर रखा गया है। इसके अलावा उनके द्वारा किए भालू के शिकार के साक्ष्य भी म्यूजियम में अभी तक रखे हैं। एडवोकेट गोयल ने बताया कि उस समय शिकार करने वाले एवं अन्य साथियों के साथ सामूहिक रूप से शिकार के साथ फोटो खींची जाती थी। शिकार करने वाले व्यक्ति वन्यजीवों के शिकार के बाद उनकी खाल में भूसा भरवाकर म्यूजियम या अपने निवास आदि पर रखते थे। यही कारण है कि वर्तमान में भी पुराने जागीरदार परिवारों में हिरण के सींग आदि सजे दिखाई पड़ते हैं। हालांकि अब वन्यजीवों के पुराने अवशेषों के लिए सरकार ने रजिस्टेशन अनिवार्य कर दिया है।
शुल्क लेकर देते थे शिकार का लाइसेंस
एडवोकेट हरिशंकर गोयल ने बताया कि रियासतकाल एवं इसके बाद तक शुल्क लेकर वन्यजीवों के शिकार की अनुमति देने का दौर जारी रहा। उस समय जिले में सरिस्का के बाहर अलवर, राजगढ़, रामपुर, नारायणपुर और अकबरपुर आदि ब्लॉक शिकार के लिए आरक्षित थे। भारतीय नागरिक इन ब्लॉकों को 20 रुपए देकर आरक्षित करा सकते थे, वहीं बाहरी लोगों के लिए शुल्क 500 रुपए प्रति बंदूक था। वन्यजीवों के शिकार के अलावा फोटोग्राफी और िफल्म शूटिंग के लिए भी शुल्क लिया जाता था।
शिकार पर रोक नहीं होने से बाघों पर आया संकट
सरिस्का को अभयारण्य का दर्जा मिलने से पहले तक यह वन क्षेत्र वन्यजीवों की शिकार स्थली रहा। वन्यजीव विशेषज्ञों के अनुसार 19 शताब्दी के अंत तक सरिस्का में 100 से ज्यादा बाघ रहे, लेकिन ब्रिटिश एवं पूर्व राजपरिवारों के लोगों को शिकार की अनुमति देने यहां बाघों की आबादी में तेजी से कमी आई। जिसके चलते 1963 तक सरिस्का अभयारण्य में करीब 15 बाघ ही बच पाए। वर्ष 1972 में वन्यजीव अधिनियम लागू होने के बाद सरिस्का में वन्यजीवों का शिकार प्रतिबंधित हो गया। हालांकि इसके बाद भी सरिस्का में अवैध शिकार का क्रम जारी रहा, जिसके चलते सरकार को 2005 में सरिस्का को बाघ विहिन घोषित करना पड़ा। सरकार ने देश में पहली बार सरिस्का को बाघों से आबाद करने के लिए वर्ष 2007— 08 में रणथंभौर टाइगर रिजर्व से बाघों का पुनर्वास कराया, जिसका परिणाम यह रहा कि अब सरिस्का टाइगर रिजर्व बाघों से खूब फल फूल रहा है और वर्तमान में यहां बाघों का कुनबा बढ़कर 48 तक पहुंच गया है।
मचान पर बैठकर करते थे शिकार
इतिहासविद गोयल के अनुसार शिकार का लाइसेंस मिलने के बाद व्यक्ति मचान पर बैठकर अपने शिकार का इंतजार करता। जैसे ही शिकार शिकारी के रेंज में आता, शिकारी मचान से बंदूक से शूट कर उसका शिकार करता। इसके बाद मचान से बाहर आकर जंगलात के अधिकारी शिकार करने वाली टीम के साथ शिकार सहित फोटो खिंचवाया करते थे। इतिहासकार के अनुसार उस दौरान देशी से ज्यादा विदेशी सैलानी अलवर आते थे।
बाघ एसटी 1 के पुनर्वास से खुशहाली का शुरू हुआ दौर
सरिस्का को फिर से आबाद करने के लिए बाघों का रणथंभौर से पुनर्वास कराया गया। इसके चलते 28 जून को देश में पहली बार हेलीकॉप्टर से रणथंभौर से बाघ को सरिस्का लाया गया, जिसे एसटी 1 का नाम दिया गया। इसके करीब 5 दिन बाद रणथंभौर से ही बाघिन को सरिस्का शिफ्ट किया गया। जिसे सरिस्का में एसटी 2 नाम दिया गया। वर्तमान में सरिस्का टाइगर रिजर्व में बाघिन एसटी 2 के वंश के बाघों की संख्या आधे से ज्यादा हैं इसके लिए इस बाघिन को राजमाता का नाम दिया गया। देश में पहली बार इस बाघिन का टाइगर रिजर्व सरिस्का में स्टेच्यू बनाया गया। स्टेच्यू के माध्यम से पर्यटकों को सरिस्का में राजमाता का योगदान पता चल सकेगा।