भारत का ईसबगोल उत्पादन में एकाधिकार है, विशेषकर राजस्थान के पश्चिमी भाग में इसका 97% उत्पादन है
मिशनसच न्यूज, जोधपुर, ।ईसबगोल जैसी पारंपरिक फसल वैश्विक बाजार में भारत की ताकत बनकर उभर रही है। पश्चिमी राजस्थान इस फसल का प्रमुख उत्पादक क्षेत्र है और अब यह न केवल औषधीय बल्कि विदेशी बेकरी और पालतू पशुओं के आहार के रूप में भी लोकप्रिय हो रही है। इसी संदर्भ में जोधपुर स्थित कृषि विश्वविद्यालय में “ईसबगोल की वैश्विक क्षमताएं” विषयक एक दिवसीय राष्ट्रीय कार्यशाला आयोजित की गई, जिसमें वैज्ञानिकों, उद्यमियों, एफपीओ, व्यापारियों और प्रगतिशील किसानों ने भाग लिया।
कार्यशाला का आयोजन कृषि विश्वविद्यालय, एपीडा, एनसीईएल, राजफैड, आईसीएआर, कृषि विभाग राजस्थान और दक्षिणी एशिया जैव प्रौद्योगिकी केंद्र के संयुक्त तत्वावधान में हुआ। कार्यक्रम का उद्देश्य राजस्थान में ईसबगोल की वैज्ञानिक, टिकाऊ और व्यावसायिक खेती को बढ़ावा देना तथा वैश्विक प्रतिस्पर्धा के लिए इसकी आपूर्ति श्रृंखला को सशक्त बनाना था।
ईसबगोल: भारत की मोनोपोली, फिर भी कई चुनौतियां
कृषि और प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण (APEDA) के डीजीएम मान प्रकाश विजय ने कहा कि भारत का ईसबगोल उत्पादन में एकाधिकार है, विशेषकर राजस्थान के पश्चिमी भाग में इसका 97% उत्पादन होता है। उन्होंने जोर देकर कहा कि अंतरराष्ट्रीय टेस्टिंग में गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए जैविक और वैज्ञानिक खेती आवश्यक है।
उन्होंने कहा कि विदेशों में ईसबगोल की भारी मांग है, लेकिन किसानों को इसकी उन्नत किस्मों की जानकारी, गुणवत्ता परीक्षण, भंडारण और प्रोसेसिंग से जोड़ने की आवश्यकता है। साथ ही निर्यात हेतु संपूर्ण वैल्यू चेन को संगठित करना होगा।
पेट्स इंडस्ट्री और बेकरी में हो रहा उपयोग
एनसीईएल दिल्ली के एमडी डॉ. अनुपम कौशिक ने जानकारी दी कि वर्तमान में विदेशों की पेट्स इंडस्ट्री में ईसबगोल का उपयोग तेजी से बढ़ा है। बेकरी उत्पादों में भी इसका प्रयोग हो रहा है। उन्होंने इसे “संजीवनी” जैसा बताया और सहकारी मॉडल के तहत निर्यात को किसानों के हित में बताया।
वैज्ञानिकों की कमी और रिसर्च की जरूरत
आईसीएआर डीएमएपीआर, आणंद के निदेशक डॉ. मनीष दास ने कहा कि वैश्विक स्तर पर ईसबगोल की मांग तो है लेकिन रिसर्च और वैज्ञानिकों की भारी कमी है। उन्होंने कहा कि नई किस्में विकसित करनी होंगी और वैज्ञानिक खेती को बढ़ावा देना होगा, ताकि खरपतवार नियंत्रण और उत्पादन क्षमता में वृद्धि हो।
एलेलोपैथी से उपज पर असर
डॉ. भागीरथ चौधरी, निदेशक, एसएबीसी जोधपुर ने बताया कि ईसबगोल की फसल एक बार खेत में ली जाए तो एलेलोपैथी प्रभाव के कारण अगले पांच वर्षों तक उसी भूमि में पुन: ईसबगोल की खेती नहीं की जा सकती, जिससे उत्पादन प्रभावित होता है। उन्होंने इस चुनौती पर अनुसंधान की आवश्यकता जताई।
स्पष्ट गाइडलाइन की आवश्यकता
ईसबगोल प्रोसेसर संगठन, उंझा के अश्विन नायक ने कहा कि भारत में ईसबगोल के लिए स्पष्ट गाइडलाइन नहीं है कि इसे दवा के रूप में मानें या खाद्य सामग्री के रूप में। यह अस्पष्टता व्यापार और निर्यात दोनों में बाधा बन रही है। कृषि विभाग, जोधपुर के संयुक्त निदेशक डॉ. एस.एन. गढ़वाल ने बताया कि भारत में इसे अभी भी कब्ज निवारक भूसी के रूप में सीमित किया गया है, जबकि विदेशों में यह हेल्थ सप्लीमेंट और बेकरी में उपयोगी तत्व बन चुका है। उन्होंने इसके स्वास्थ्य लाभों को देखते हुए भारत में भी खाद्य श्रेणी में शामिल करने की आवश्यकता बताई।
तकनीकी सत्रों में व्यापक चर्चा
कार्यक्रम के तकनीकी सत्रों में जैविक खेती, उन्नत किस्मों का विकास, मूल्यवर्धन, निर्यात, प्रसंस्करण, एफपीओ की भूमिका और बाजार एकीकरण जैसे विषयों पर विस्तृत चर्चा हुई। कृषि विश्वविद्यालय जोधपुर के वैज्ञानिकों सहित इफको और अन्य व्यापारिक संगठनों के प्रतिनिधियों ने भी विचार साझा किए।
डॉ. अरुण कुमार ने कहा कि किसान यदि संगठित होकर वैज्ञानिक विधियों से खेती करें तो उत्पादन में 50% तक की वृद्धि हो सकती है। वहीं डॉ. अजीत सिंह, डॉ. जेपी मिश्रा और डॉ. महेश दाधीच ने भी अपने विचार साझा किए।
सम्मान और सहभागिता
कार्यक्रम में हस्क इंटरनेशनल, जोधपुर के निदेशक जगदीश सोनी को विशेष सम्मान प्रदान किया गया। निदेशक, प्रसार शिक्षा, डॉ. प्रदीप पगारिया ने कार्यक्रम की रूपरेखा प्रस्तुत की एवं स्वागत भाषण दिया। कार्यशाला में पश्चिमी राजस्थान के आठ जिलों से आए प्रगतिशील किसान, एफपीओ प्रतिनिधि और व्यापारी बड़ी संख्या में उपस्थित रहे। राष्ट्रीय कार्यशाला ने यह स्पष्ट कर दिया कि राजस्थान का ईसबगोल न केवल देश के लिए बल्कि वैश्विक बाजार के लिए भी एक बड़ी संभावना है। आवश्यकता है वैज्ञानिक खेती, किस्म सुधार, स्पष्ट गाइडलाइन और सहकारी निर्यात प्रणाली की, ताकि यह फसल किसानों के लिए आर्थिक समृद्धि का जरिया बन सके।
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