हूल क्रांति: जब 1855 में सिदो-कान्हू ने अंग्रेजों की नींव हिलाई, मजबूर हुए थे झुकने पर

अंग्रेजों के खिलाफ पहले स्वतंत्रता संग्राम की जब बात आती है तो साल 1857 का जिक्र होता है, जबकि आजादी की पहली लड़ाई साल 1857 में नहीं बल्कि 1855 में ही झारखंड के संथाल परगना के भोगनाडीह में लड़ी गई थी. अंग्रेजों के खिलाफ साल 1855 में संथाल आदिवासियों ने ऐसी विद्रोह की चिंगारी जलाई, जिसने अंग्रेजों को संथालियों के सामने घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया था.

झारखंड के साहिबगंज जिला के बरहेट विधानसभा क्षेत्र के तहत आने वाले भोगनाडीह के एक गरीब आदिवासी संथाली परिवार में जन्में वीर नायकों ने अंग्रेजी हुकूमत और महाजनी प्रथा के खिलाफ ऐसी जंग छेड़ी, जिसकी चिंगारी से बंगाल सहित देश के अन्य हिस्सों तक ज्वाला पहुंच गई. साल 1855 में लगभग 9 महीने तक चला था अंग्रेजों के खिलाफ पहला आंदोलन जिसे हूल आंदोलन के रूप में याद किया जाता है.

हजारों संथाली हुए थे एकत्रित

इस आंदोलन के दौरान संथाल के सैकड़ों गांव के 50,000 से ज्यादा लोग विद्रोह में उतरे थे. अंग्रेजों के साथ-साथ जमाखोरों और महाजनों के खिलाफ विद्रोह की शुरुआत करते हुए सिद्धू-कान्हू और चांद-भैरव ने ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ विद्रोह के दौरान समानांतर सरकार चलाने के लिए लगभग 10,000 संथालियों को एकत्रित किया था. जिसका असर यह हुआ कि कई गांव में विद्रोह की ऐसी ज्वाला भड़की कि लोगों ने जमींदारों, साहूकारों और अंग्रेजी हुकूमत से जुड़े हुए लोगों को मार डाला.

अंग्रेजों ने महिलाओं और बच्चों पर किया था दमन

सिद्धू-कान्हू और चांद-भैरव के नेतृत्व में संथालियों ने जमींदारों और महाजनों को मालगुजारी देने से मना करते हुए अंग्रेजों हमारी माटी छोड़ो का भी ऐलान किया था. इसके बाद अंग्रेजों ने इन क्रांतिकारियों को रोकने के लिए अनेकों प्रकार से महिलाओं और बच्चों पर दमन करना शुरू कर दिया था. जिसके बाद आदिवासियों ने भी अंग्रेजी हुकूमत से जुड़े जमींदारों और सिपाहियों को मौत के घाट उतार दिया था.

इसके बाद अंग्रेजी हुकूमत ने इस आंदोलन को कुचलना के लिए और संथालियों में डर पैदा करने के लिए बड़ी संख्या में हाथियों को बुलाया गया था. ताकि लोग आंदोलन छोड़कर अपने घरों में छुप जाएं, बावजूद इसके आंदोलनकारी रुकने को तैयार नहीं थे. इसके बाद ईस्ट इंडिया कंपनी ने आंदोलन को रोकने के लिए एक बड़ी साजिश रचते हुए सिद्धू-कान्हू और चांद-भैरव पर गिरफ्तारी में मदद करने पर इनाम देने की घोषणा की थी.

1876 में एसपीटी एक्ट हुआ लागू

बावजूद इसके आंदोलनकारी न रुके न झुके और न कभी अंग्रेजों की गुलामी को स्वीकार किया. उन्होंने अपनी जमीन बचाने के लिए युद्ध किया. इसी आंदोलन का परिणाम था कि अंग्रेजों ने संथालियों की जमीनों को संरक्षित करने के लिए संताल परगना में एसपीटी एक्ट (संताल परगना टेनेंसी एक्ट) लागू किया. 1876 में लागू हुए इस एक्ट का उद्देश्य आदिवासियों की भूमि को उनके पास सुरक्षित रखना और उन इलाकों में उनका स्वशासन चलने देना था. ताकि उनकी संस्कृति बची रहे.

हजारों आदिवासियों ने दी शहादत

दरअसल, अंग्रेजों ने आदिवासियों की रक्षा के लिए नहीं बल्कि उनके हूल आंदोलन और विद्रोह की ज्वाला से डरकर यह एक्ट लागू किया था. हूल आंदोलन के प्रमुख नेता सिद्धू-कान्हू, चांद-भैरव और फूलों-झानो सहित हजारों संथाल आदिवासियों ने अपनी शहादत दी थी. हूल आंदोलन के विद्रोह के बाद ही अंग्रेजी हुकूमत ने सिद्धू कान्हू को गिरफ्तार कर लिया गया.

साहिबगंज जिला के बरहेट प्रखंड के पंचकठिया स्थित एक बरगद के पेड़ पर 26 जुलाई 1856 को सिद्धू मुर्मू को फांसी पर लटका दिया था, जबकि कान्हू मुर्मू को भोगनाडीह में फांसी दी गई थी. आज यानी 30 जून को संथाल हूल दिवस के रूप में मनाया जाता है, जो संथाल हूल आंदोलन की याद दिलाती है.

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